वेद और उसकी दुनिया
लेखक प्रेमकुमार मणि बता रहे हैं कि ऋग्वेद व अन्य वेदों के ऐतिहासिक निहितार्थ क्या हैं? सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद ईरान से आये आर्य और मूलनिवासी हिंदू लंबे समय तक लड़ते-झगड़ते रहे। मानव सभ्यता के दृष्टिकोण से इसके परिणाम क्या हुए?
जन-विकल्प
अहं पुरो मंदसानो व्यैरं नव साकं नवतीः शम्बरस्य
शततम वेश्यं सर्वताता दिवोदास मतिथिग्वं यदावम .
- ऋग्वेद की एक बानगी, चतुर्थ मंडल, सूक्त 26 (3 )
(सोमरस पी मतवाला हो कर मैंने शम्बर असुर के निन्यानबे नगरों को एक ही साथ नष्ट कर दिया है। यज्ञ में अतिथियों का स्वागत करने वाले दिवोदास को मैंने सौ सागर दिए हैं।)
वेद दुनिया की संभवतः पहली किताब है। हिन्दुओं ने इसे धर्म-ग्रन्थ के रूप में अपनाया है और कुछ लोगों ने इसे जादुई तरीके से सहेज कर तीन हजार से भी अधिक वर्षों से रखा हुआ है। यह संस्कृत भाषा में है, और कोई खास इंसान इसका रचनाकार नहीं है। इसे अपौरुषेय (किसी पुरुष द्वारा रचित नहीं) कहा गया है। अनुमान है कि इंडो-ईरानी आर्यों के द्वारा इसकी रचना ईस्वीपूर्व 1500-1000 के बीच, एक दीर्घ कालखंड में क्रमशः की गयी है। लम्बे समय तक यह श्रुति रूप में रहा, अर्थात इसे लिपिबद्ध नहीं किया गया। यह नहीं माना जाना चाहिए कि इस बीच लिपि नहीं थी। लेकिन जिन खास लोगों की यह थाती थी, उन्होंने कदाचित इसे गोपनीय बना कर रखना अधिक आवश्यक समझा। लिपिबद्ध कर देने और ग्रन्थ रूप दे देने से इसके सार्वजनिक हो जाने का ‘खतरा ‘ था और इसके रचयिता लोग, तथा उनका परिमंडल, जिनका धीरे-धीरे एक वर्ग बन गया, इसके सार्वजनिक करने के पक्ष में बिलकुल नहीं था। उनके अनुसार हर कोई इसका पाठ करता, तो पाठ के भ्रष्ट होने का भय भी था, इसलिए कोई ‘कुपात्र ‘ इसका पाठ न कर सके, इसकी भरपूर कोशिश उनके द्वारा की गयी। यह और कुछ नहीं ज्ञान-सम्पदा पर एकाधिकार की कोशिश थी, और इस प्रवृत्ति की जड़ें संभवतः कबायली संस्कृति में थी। अंततः यह कोशिश ही हास्यास्पद हो कर रह गयी। छुपाव की इन कोशिशों ने वेद को एक रहस्य बना कर रख दिया, हालांकि रहस्य जैसा इसमें कुछ था नहीं। कुल मिला कर एक भयग्रस्त समाज का मनोविज्ञान ही इससे प्रतिबिम्बित होता है। इसके रचनाकारों ने अपने जानते, योग्य लोगों के बीच इसे रखा, और उन योग्य लोगों ने भी इसे चुने हुए लोगों के बीच ही बनाये रखा। पहले ये आर्यजन थे, फिर ब्राह्मण हो गए। इसे लोग एक दूसरे से सुन कर कंठाग्र कर लेते थे और फिर पीढ़ी दर पीढ़ी सम्प्रेषित करते रहते थे। यह एक जटिल, लेकिन अचरज भरा काम था। सब से अधिक हैरानी इस बात पर होती है कि तीन हजार से अधिक वर्षों तक इस रूप में यह बना रहा। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इसको ग्यारहवीं सदी के बाद ही लिपि दी गयी अर्थात ग्रंथन हुआ। दामोदर धर्मानंद कोसंबी तो इसे चौदहवीं सदी में लिपिबद्ध हुआ स्वीकारते हैं। पश्चिमी जगत से इसके परिचय का श्रेय जर्मन विद्वान मैक्स मूलर.को है, जिन्होंने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ऋग्वेद का सम्पादन कर प्रकाशित करवाया।
वेद संस्कृत भाषा का शब्द है और बताया जाता है इसका संबंध ‘विद ‘ धातु से है, जिसका अर्थ है जानना, या ज्ञान। वेद कुल चार अलग-
अलग ग्रंथों या संकलनों में हैं। ये हैं – ऋग, यजुर, साम और अथर्व। ऋग सबसे प्राचीन वेद है। कुछ विद्वानों के अनुसार वेद असल में तीन ही हैं, इसीलिए इन्हें त्रयी भी कहा गया है। चौथा वेद ‘अथर्व’ इस श्रृंखला में बाद में जोड़ा गया है। वेदों को श्रुति कहा गया है। श्रुति का अर्थ है इसे सुना गया है। किससे सुना गया? तो किसी लौकिक पुरुष से नहीं। यदि वेदों का ग्रंथन और परिमार्जन ग्यारहवीं सदी के बाद हुआ, तब इस बात पर भी विचार करना होगा कि यह श्रुति वाला रूप कहीं तुर्कों के आने के बाद इस्लाम की देखा-देखी तो नहीं हुई। क्योंकि इस्लामिक धर्मग्रंथ कुरान ऐसी ही अपौरुषेयता का दावा करता है, जिसमें ईश्वर के सन्देश वह्य रूप में उतरे हैं। वेदों का पाठ रूप ऐसा है कि बाहर से सुनी गयी किसी बात का बोध होता नहीं दीखता। बल्कि बार-बार ऋषि ही देवताओं को सम्बोधित करता है। इसलिए इसकी अपौरुषेयता थोपी गयी प्रतीत होती है। प्राचीन बाइबिल या कुरान के मुकाबले वेद अधिक इहलौकिक और मानवीय है और अपनी संरचना में धार्मिक से अधिक काव्यात्मक है। वैदिक ऋषि अपौरुषेयता का कोई दावा नहीं करते, क्योंकि यहां कोई शक्तिमान ईश्वर नहीं, बल्कि अनेक की संख्या में वे देवता हैं, जिनकी कृपा के ये ऋषि आकांक्षी हैं। संभवतः इन्हीं ऋषियों के अंतर्मन से ऋचाओं के ये काव्यात्मक भावोद्वेग उठे होंगे। इन ऋषियों ने स्वयं को कोई श्रेय नहीं दिया, यह उनकी उदारता और संवेदनशीलता थी। स्वयं के अहम का पूरी तरह विलोप कर वे निःसर्ग अथवा प्रकृति का हिस्सा बन चुके थे और इस रूप में वे सचमुच अलौकिक या अपुरुष भी बन चुके थे। इस रूप में ही यह वेद संभवतः अपौरुषेय है। इन रचनाकारों ने स्वयं को ‘स्रष्टार’ या ‘कर्तार’ न कह कर ‘द्रष्टार’ कहा। वे, बस, देखने वाले थे, रचने और करने वाले नहीं। अपनी इन पंक्तियों को जिन्हें ऋचा कहा गया है, उन्होंने सहेज कर रखा। योग्य पात्रों को सोमरस की घूँटों के साथ इसे सुनाया और कंठाग्र करा दिया। आरंभ में तो लिपि थी या नहीं, यकीनी तौर पर कहना मुश्किल है, लेकिन जब लिपि आई भी तब इसे उससे बद्ध करने से रोका। श्रुति रूप में ही यह उसके संरक्षक मंडल को अधिक सुरक्षित प्रतीत हुआ।
वेद के दो भाग हैं – मंत्र अथवा संहिता भाग और ब्राह्मण भाग। ब्राह्मण भाग को वेदंगम यानि वेद का अंग भी कहते हैं। इसमें इसके ठीक-ठीक पाठ पर जोर दिया गया है और उसकी विधि बतलायी गयी है। इसके छह सोपान हैं। पहला है शिक्षा अर्थात उच्चारण विज्ञान, दूसरा छन्दस यानि छंद-शास्त्र, तीसरा व्याकरण, चौथा निरुक्त यानि कठिन शब्दों की व्याख्या, पांचवां ज्योतिष या गणित-ज्योतिष और छठा कल्प अर्थात कर्मकांड।
बता चुका हूं कि ऋग्वेद सब से पुराना वेद है। अपनी संरचना में यह दस मंडलों में विभक्त है। प्रत्येक मंडल में नियत सूक्त हैं और ये सूक्त ऋचाओं या मंत्रों से मिल कर बने हैं। प्रथम मंडल में 191, द्वितीय में 43, तृतीय में 62, चतुर्थ में 58, पंचम में 87, षष्टम में 75, सप्तम में 104, अष्टम में 92, नवम में 114 और दशम में 191 सूक्त हैं। इस तरह कुल सूक्तों की संख्या 1017 है। (आधार-ऋग्वेद, संपादक, डॉ. गंगासहाय शर्मा, संस्कृत साहित्य प्रकाशन, नई दिल्ली) कतिपय विद्वानों के अनुसार दूसरा से लेकर सातवां मंडल तक सबसे प्राचीन अंश हैं। इन्हे ‘कुल-मंडल’ कहा जाता है। पहला, आठवां, नवां और दसवें मंडल को बाद में जोड़ा गया है। प्रथम और दशम मंडल में सूक्तों की संख्या एक समान है। सभी मंडलों का हर सूक्त किसी न किसी देवता को समर्पित है। अग्नि, इंद्र से लेकर मंडूक (मेढ़क) तक देवताओं की कोटि में हैं। अग्नि और इंद्र ऋग्वेद के सबसे प्रभावी देवता हैं। 295 सूक्तों में इंद्र और 223 में अग्नि की वंदना की गयी है। केवल नवम मंडल ऐसा है, जिसमें इंद्र या अग्नि की वंदना नहीं है। यहां केवल सोम देव् का वर्चस्व है। कुल-मंडल यानि द्वितीय से लेकर सप्तम मंडल की विशेषता है कि एक देवता को समर्पित ऋचा-समूह को घटते हुए छंद-संख्या के अनुसार सजाया गया है। ऐसा अन्य मंडलों में नहीं हुआ है। यही इस बात का द्योतक है कि सभी मंडलों की रचना एक ही काल-खंड में नहीं हुई है। इसमें सुविन्यास को ही आधार बनाया जाय, तो कहा जाना चाहिए कि कुल-मंडल ही बाद की रचना है। क्योंकि प्रायः बेहतर चीजें कुछ अभ्यास के उपरांत ही आती हैं। इस आधार पर प्रथम, अष्टम, नवम और दशम मंडल भी पुरातन हो सकता है। ऋग्वेद में कई कथात्मक उल्लेख हैं। उदाहरण के लिए दशम मंडल में यम-यमी संवाद (सूक्त 10), इंद्र व उनके पुत्र वासुकि ऋषि का संवाद (सूक्त 27, 28), पुरुरवा-उर्वशी संवाद (सूक्त 95 ) नचिकेता-यम संवाद (सूक्त 135) आदि। इस तरह का संवाद सरल समाज में संभव नहीं है। इनसे ऋग्वैदिक-दुनिया का पता चलता है।
अपने क्रम में यजुर दूसरा वेद है, जिसमें यज्ञों के विधि-विधान हैं, तीसरा सामवेद-ऋग्वैदिक छंदों का संकलन है और चौथा अथर्व-वेद जादू-टोने से भरे मंत्रों की पिटारी है। अतएव कहा जाना चाहिए ऋग्वेद ही मूल और वास्तविक वेद है .
हम यहां वेद की चर्चा धार्मिक अर्थों में नहीं, बल्कि इतिहास के अर्थों में कर रहे हैं, क्योंकि एक निश्चित काल-खंड की यह विश्वसनीय इतिहास-सामग्री है( जैसे सिंधु-सभ्यता की कहानी उत्खनन से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्य देते हैं, वैसे ही अपनी भाषा में छुपाये अपने समय की कहानी वेद हमें बता जाता है। वैदिक ऋषियों का पूरा परिवेश, उनके मन-मिजाज, प्रेम-विरह सब इससे उझकते हैं। ‘ऋग्वेद’ और ईरानी धर्मग्रन्थ ‘जेंद-अवेस्ता’ की भाषा, कुछेक शब्द और देवता इतने मिलते-जुलते हैं कि यह साफ़ तौर से पता चलता है कि ईरान, जो अपने मूल में सम्भवतः आर्यान है, के लोग और ये वैदिक-जन कभी एक साथ रहे होंगे। दोनों ग्रंथों में अग्नि, इंद्र, वरुण आदि देवता हैं। ईसा पूर्व छह सौ के आस-पास जब जरथ्रुष्ट ने अपने विचारों से ईरानी देवताओं को विनष्ट कर डाला, तब भी अग्नि वहां रह गया, जो आज भी वहां पारसियों का मुख्य देवता और उनकी संस्कृति का मूल बना हुआ है। वैदिक संस्कृति के लिए भी अग्नि प्रधान देवता है। कोई भी वैदिक यज्ञ आज भी अग्नि के बिना पूरा नहीं हो सकता। जबकि इंद्र अपना महत्व कब का खो चुका है। ऋग्वेद में पर्जन्य वर्षा के देवता हैं। लेकिन इंद्र भी अनेक दफा वर्षा-देवता के रूप में चिन्हित किये जाते हैं। आज भी ग्रामीण चेतना में कई जगह वह वर्षा का देवता बना हुआ है। कुछ-कुछ आज के सिंचाई मंत्री जैसा। वर्षा के न होने पर ग्रामीण स्त्रियां इंद्र को रिझाने के लिए समूह गीत चौहट गाती हैं।
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